वो हृदय सुन्दर सा मनोरम दृश्य ताकता बाहर भीतर की शुद्धता से सम्पूर्ण समझता की यह ही बाहर भी है फैला हुआ प्रेम का सागर शुद्ध सहसा कुछ अटपटा सा झटका और सहम गया वो अबोध बालक ताकता रह गया उस आघात के ज़ख़्म को ।न समझ पाने का बोध और असमंजस में डाल देता है कैसा वहाँ ,यहाँ तो प्रेम का महासागर सभी की प्रेम नदी को समाने में समर्थ होता दिखता और इस शुद्धतम पुष्प को वह नोचने लूटने छीनने मारने की होड़ में तोड़ते जा रहे सारी सीमाये और वह देखता जा रहा अवाक् हो की हो क्यों रहा इसके साथ यह तो इसकी प्रकृति भी न थी न ही यह दिया था न ऐसा होना था कही भी यह आया कहा से ।ऐसे कई अनगिनत प्रश्नो के बीच में दबा सा अपने को असहाय सा महसूस करता वो ह्रदय सोचता कहा हु क्यों हु ऐसा क्यों हु कही कुछ न कह पाता न कर पाता बस झेले चला जा रहा आक्रामकता का नित नया प्रपंच ।इसे तो झुकना ही आता है प्रेम में और जो आता रौंद के चला देता,कोई ह्रदय से लगा के इसकी सुगंध से आनंदित क्यों नहीं हो पाता शायद उनके अभी भी बच्चा होने में कई युग बाकी हैं ।
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