Sunday 17 May 2015

अवाक् ह्रदय

वो हृदय सुन्दर सा मनोरम दृश्य ताकता बाहर भीतर की शुद्धता से सम्पूर्ण समझता की यह ही बाहर भी है फैला हुआ प्रेम का सागर शुद्ध सहसा कुछ अटपटा सा झटका और सहम गया वो अबोध बालक ताकता रह गया उस आघात के ज़ख़्म को ।न समझ पाने का बोध और असमंजस में डाल देता है कैसा वहाँ ,यहाँ तो प्रेम का महासागर सभी की प्रेम नदी को समाने में समर्थ होता दिखता और इस शुद्धतम पुष्प को वह नोचने लूटने छीनने मारने की होड़ में तोड़ते जा रहे सारी सीमाये और वह देखता जा रहा अवाक् हो की हो क्यों रहा इसके साथ यह तो इसकी प्रकृति भी न थी न ही यह दिया था न ऐसा होना था कही भी यह आया कहा से ।ऐसे कई अनगिनत प्रश्नो के बीच में दबा सा अपने को असहाय सा महसूस करता वो ह्रदय सोचता कहा हु क्यों हु ऐसा क्यों हु कही कुछ न कह पाता न कर पाता बस झेले चला जा रहा आक्रामकता का नित नया प्रपंच ।इसे तो झुकना ही आता है प्रेम में और जो आता  रौंद के चला देता,कोई ह्रदय से लगा के इसकी सुगंध से आनंदित क्यों नहीं हो पाता शायद उनके अभी भी बच्चा होने में कई युग बाकी हैं ।


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