यहाँ कौन किसको समझे कौन किसको समझने आया , स्वयं को ही न समझ पाया दुसरे को क्या यहाँ कोई क्या समझेगा। स्वयं के भ्रम में इतना खोया जीव स्वयं को कहाँ समझ पायेगा। स्वयं
में व्याप्त उस प्रेममय अबोध को अपने समझदार भ्रामक संसार के चरणो द्वारा कुचल के उसके अचंभित भाव रुपी अश्रुओ को बिन मौसम बारिश की तिरस्कृत बूँद मान बचा गया वो अपना आँचल। तिरस्कृत बूँद ही सही उस बूँद के रुदन की पुकार कभी तो वह समझदार ,ह्रदय केंद्र में उतारेगा जो उसके मौन में उत्पन्न होने वाली पुकार को शब्द के स्तर पे लाने के बावजूद शून्य की असामर्थ्यता के कारण शब्द में नहीं पिरो सकता।
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